लोक संस्कृति और लोकनाट्य परंपरा
Author: अलक्षेन्द्र प्रभाकर
सारांश
‘लोक’ शब्द का तात्पर्य उस समस्त जनसमूह से है जो किसी देश में निवास करता है । वैदिक साहित्य से लेकर वर्तमान समय तक ‘लोक’ शब्द का प्रयोग जनसामान्य के लिए प्रयुक्त हुआ है । जनसामान्य के पारस्परिक त्योहारों, पर्वों,धार्मिक रीति – रिवाजों आदि मान्यताओं को ही लोक – संस्कृति की संज्ञा दी गई है। प्राप्त प्रामाणिक तथ्यों के अनुसार नाटक का जनक ब्रह्मा को माना जाता है और उन्हीं के आदेश पर भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र की रचना की । अतः लोकनाटक परंपरा का मूल स्रोत नाट्यशास्त्र है । यह परंपरा संस्कृत, पालि, प्राकृत विकसित होती हुई हिंदी साहित्य में प्रवाहित हुई । भारतीय लोकनाटक भारत की विविध और समृद्ध लोक सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं । यह भी सत्य है कि आदिकालीन कवियों से लेकर आधुनिक कवियों की रचनाओं में नाटकीय तत्व विद्यमान हैं और लोकनाट्य में रूपांतरित कर उन्हें लोक के समक्ष रंगमंच पर आसानी से प्रदर्शित किया जा सकता है । प्रसिद्ध लोकनाट्यों रासलीला, रामलीला, तमाशा आदि में लोक संस्कृति का जीवंत चित्र उपस्थित किया जाता है।
महत्वपूर्ण शब्द : लोक, संस्कृति, लोकनाटक ,नाट्यशास्त्र, रंगमंच।
Cite this Article:
अलक्षेन्द्र प्रभाकर, “लोक संस्कृति और लोकनाट्य परंपरा” Shiksha Samvad International Open Access Peer-Reviewed & Refereed Journal of Multidisciplinary Research, ISSN: 2584-0983 (Online), Volume 03, Issue 01, pp.92-98, September 2025. Journal URL: https://shikshasamvad.com/
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